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स्वामी विवेकानंद जी ने अपने विमल चरित्र के प्रभाव से राजाधिराज से लेकर एक मेहतर तक के हृदय पर अधिकार प्राप्त कर लिया


स्वामी विवेकानंद जी ने अपने विमल चरित्र के प्रभाव से राजाधिराज से लेकर एक मेहतर तक  के हृदय पर अधिकार  प्राप्त कर लिया,Swami Vivekananda ji acquired the right over the heart from Rajadhiraj to a scavenger with the effect of his Vimal character
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स्वामी विवेकानंद जी ने अपने विमल चरित्र के प्रभाव से राजाधिराज से लेकर एक मेहतर तक  के हृदय पर अधिकार  प्राप्त कर लिया,Swami Vivekananda ji acquired the right over the heart from Rajadhiraj to a scavenger with the effect of his Vimal character


स्वामी विवेकानंद का चरित्र बहुत ही सरल और बहुत ही सादर था और दूसरों का कथित करने वाला था वह इतने लोगों में प्रिय खेल की उन्होंने अपने को लोगों के बीच बहुत ही प्रसिद्ध कर लिया था यह सब सिर्फ उनके चरित्र के कारण ही हुआ आइए उनकी ऐसी एक घटना के बारे में जानते हैं जो कि स्वामी विवेकानंद चरित्र की किताब से लिया गया है।


एक बार मैंसूर के दीवान आरके शेषाद्री बहादुर की स्वामी जी से भेंट हुई। उन्होंने, इनकी ओर आकर्षित होकर, मैसूर नरेश महाराजा चमराजेंद्र वाडियर बहादुर को इनसे परिचित करा दिया। महाराजा भी स्वामी जी की अनोखी प्रतिभा व उनके पांडित्य का परिचय पाकर विशेष आनंदित हुए और उन्होंने उनसे राज भवन में रहने के लिए बड़ी श्रद्धा से प्रार्थना के स्वामी जी राजभवन में रहने को राजी हो गए। मैंसूर नरेश बड़े सरल और उदार प्रकृति के थे। स्वामी जी समय-समय पर बालक की तरह सरल भाव से महाराजा से किसी कार्य में  त्रुटि देखकर उसकी उसी समय बड़ी तीव्रता से आलोचना कर देते थे, इससे महाराज को विशेष आनंद अनुभव होता था। 1 दिन स्वामी जी  की स्नेह भरतसना  से बनावटी क्रोध प्रकट करते हुए महाराजा ने कहा,  "स्वामी जी, मै इतना बड़ा महाराजा हूं। मुझसे आप को डरना उचित है,  मेरी खुशामद  करना  उचित है। भविष्य के लिए आप सावधान हो जाइए, वरना आपका जीवन संकट में पड़ सकता है।

 इस बात पर स्वामी जी ने बालकोचित सरलता से महाराजा की बातों पर विश्वास करते हुए गंभीर भाव से उत्तर दिया, "आपके अनुचित कार्य का व कथनों का समर्थन करने के लिए तो अनेक सभासद है ही, मैं तो सन्यासी हूं- सत्य ही मेरी तपस्या है। मामूली जड़ देह के अनिष्ट की आशंका से मैं सत्य को छोड़ दूं? आप हिंदू राजा होकर क्या एक हिंदू सन्यासी से भी अनुचित कार्य की आशा रखते हैं?"

कहना ना होगा इस प्रकार की निर्भीक स्पष्टवादिता के लिए ही स्वामी जी मैसूर नरेश के मित्र बन सके थे। महाराजा एक ओर जिस प्रकार स्वामी जी के साथ हास परिहास एवं राशि पूर्ण वार्तालाप करते थे, दूसरी ओर उसी प्रकार गुरु की तरह श्रद्धा भी रखते थे, यहां तक कि महाराजा बहादुर ने एक दिन स्वामी जी की पूजा करने का अभिप्राय प्रकट किया, परंतु स्वामी जी ने उसका ऐसा  निषेध किया कि महाराजा को बाध्य होकर संकल्प का परित्याग करना पड़ा। कोई आश्चर्य नहीं कि  भारतीय यश, सम्मान, ऐश्वर्य की आकांक्षारहित इस सन्यासी ने केवल अपने विमल चरित्र के प्रभाव से राजाधिराज से लेकर एक मेहतर तक के हृदय पर अधिकार प्राप्त कर लिया था।


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