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जब स्वामी विवेकानंद जी ने वेदांत की व्याख्या की,When Swami Vivekananda explained Vedanta

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एक दिन दीवान बहादुर की के सभापतित्व में राजप्रसाद में एक विचार सभा बुलाई गई। बैंगलोर नगर के प्रायः सभी पंडितगण इस सभा में सम्मिलित हुए। वेदांत पर विचार आरंभ हुआ पंडितगण वेदांत के विभिन्न मतवादों का समर्थन कर वाद-विवाद में प्रवृत्त हुए।
अपने अपने मत की स्थापना की आकांक्षा से दूसरों के मत को भ्रांत प्रमाणित करने के लिए तर्क वितर्क की खूब आंधी उठी - परंतु बहुत समय व्यतीत होने पर भी लोग किसी सिद्धांत पर ना पहुंच सके।

अंत में दीवान बहादुर के अनुरोध से स्वामी जी खड़े हुए और श्रद्धा के साथ उन्होंने उपस्थित मंडली का अभिवादन किया। उनके देवी लावण्यामंडित मुख्यमंडल तथा उज्जवल विशाल नेत्रों ने थोड़ी ही देर में वयोवृद्ध विद्वान पंडित मंडली के हृदय पर अपना अधिकार जमा लिया। स्वामी जी ने अपने  स्वाभाविक मधुर कंठ से संतुलित संस्कृत में अपूर्व  युक्ति द्वारा प्रमाणित कर दिया कि सर्व संदेह विनाशक वेदांत के विभिन्न मतवाद परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि एक दूसरे के समर्थक हैं। वेदांत शास्त्र कुछ दार्शनिक मत वादों की  समस्टी नहीं, वरन साधक जीवन की विभिन्न स्थितियों में अनुभूत शक्तियों का समूह है। अतः एक की सत्यता प्रमाणित करने के लिए ऊपर से विरुद्ध प्रतीत होने वाले दूसरे को भ्रमित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। स्वामी जी की वेदांत की नवीन व्याख्या सुनकर उपस्थित पंडित मंडली आश्चर्यचकित हो गई और एक स्वर में उनकी प्रशंसा करने लगी।
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एक दिन बातचीत में महाराजा ने कहा, "स्वामी जी, मेरी बड़ी इच्छा है कि कि यदि मैं आपके लिए कुछ कर सकता तो बड़ा ही अच्छा होता। आप तो मुझसे कुछ भी ग्रहण नहीं करेंगे।"

स्वामी जी ने अपने भारत भ्रमण की अभिज्ञता से देश की वर्तमान स्थिति का वर्णन करके कहा, "हमारी वर्तमान आवश्यकता है पाश्चात्य विज्ञान की सहायता से आर्थिक व सामाजिक स्थिति को उन्नत बनाने की चेष्टा करना। केवल यूरोप निवासियों के दरवाजे पर खड़े होकर रोने पीटने से तथा भीख मांगने से उद्देश्य  सिद्ध ना होगा। वे लोग हमें जिस प्रकार वर्तमान उन्नत वैज्ञानिक प्रणाली से कृषि, शिल्प आदि की शिक्षा देंगे, उसके बदले में हमें भी उन्हें कुछ देना होगा। भारत के पास इस समय एकमात्र अध्यात्मिक ज्ञान के अतिरिक्त और देने योग्य है ही क्या? इसलिए कभी-कभी मेरी इच्छा होती है कि वेदांत के उदार धर्म प्रचार के लिए पाश्चात्य देश में जाऊँ। प्रत्येक भारतवासी का स्वजाति व स्वदेश के कल्याण की कामना से ऐसी चेष्टा करना कर्तव्य है जिससे इस प्रकार के आदान-प्रदान का संबंध स्थापित हो सके। आप जैसे महाकुल प्रसूत शक्तिशाली राजन्यवर्ग यदि चेष्टा करें तो सहज ही में यह कार्य प्रारंभ हो सकता है। आप ही इस महा कार्य मैं अग्रसर हों, यही मेरी एकमात्र इच्छा है।"

 महाराजा ने ध्यान से स्वामी जी की बातें सुनी और कहा, "स्वामी जी, यदि आप पाश्चात्य देशों में हिंदू धर्म के प्रचार करने के लिए जाएं तो उस संबंध में सारे व्यय का भार उठाने के लिए मैं तैयार हूं।" यहां तक कि मैं राजा उसी समय उन्हें कई हजार  रुपए देने को भी तैयार हो गए। पर स्वामी जी ने लेने से इंकार करते हुए कहा," महाराज मैं अभी स्थिर निश्चय नहीं कर सका हूं। मैंने हिमालय से कन्याकुमारी तक भ्रमण करने का संकल्प किया है।  यह परिरवाजक व्रत उद्यापीत ना होने तक अन्य किसी दूसरे कार्य में हस्तक्षेप ना करूंगा-यहां तक कि उसके बाद क्या करूंगा, कहां जाऊंगा इसका भी कोई  निश्चय नहीं है।"
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अंत में एक दिन स्वामी जी को प्रस्थान करने के लिए तैयार देख महाराजा ने उन्हें विविध प्रकार के बहुमूल्य द्रव्यों को उपहार प्रदान किया। बहुत अनुरोध करने पर स्वामी जी ने उनमें से मित्रता के स्मृति चिन्ह के रूप में एक छोटी सी चीज लेकर से सबको अस्वीकार का दिया। दीवान बहादुर ने स्वामी जी की छोटीसी गठरी में एक नोटों का बंडल रख देने के लिए बहुत चेष्टा की, परंतु उसमें भी सफल न हो सके। इससे दीवान बहादुर बहुत दुखी हो गए। स्वामी जी ने उन्हें  खिन्न देख कर कहा," अच्छा ऐसा ही है तो लो मैं कोचीन तक का एक दूसरी श्रेणी का रेल टिकट तुमसे लिए लेता हूं।" दीवान बहादुर कोचीन राज्य के दीवान के लिए एक परिचय पत्र देकर बोले, "स्वामी, जी दया करके मेरे एक अनुरोध को स्वीकार कीजिए। आप पैदल भ्रमण का कष्ट ना उठाइएगा।  कोचीन राज्य के दीवान जी आपकी श्रीरामेश्वर तक जाने की व्यवस्था कर देंगे।"

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